Friday, April 4, 2008


प्रार्थनाःबच्चों के लिए
रीतू नेगी


कितना प्यारा होता हैं बचपन
कितना मासूम होता हैं लड़कपन
सच होता हैं मन जैसे दर्पण
सबसे अलग भी उनका हठपन

अधूरा हैं जीवन इनके बिना
उनके लिए जिए वही हैं जीना
सब कुछ भी जो गया अपना छीना
बच्चे हैं जो साथ तो पास हैं नगीना

बस एक ही प्रार्थना हैं भगवान से
अपना रास्ता चुने वो सच्चाई से
भटके न कदम दुनिया की चकाचौंध से
बचाके रखे उन्हें हर आनेवाली मुश्किल से

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।। कविता ।।

युएसए का प्रवासी साहित्य
तीन कविताएँ
प्रतिभा सक्सेना


वही दृष्टि
मन सम्हाले नहीं सम्हलता ,
कभी जब अपना देश बहुत दूर लगता है,

ढूँढता फिरता है उस मिट्टी की छुअन !
समझाती हूँ उसे - 'भाग मत पगले,
सारा देश देख ले यहीँ -
अय्यर, दार जी शर्मा, गुप्ता किशोर भाई, कालेल कर, बाबू मोशाय,
सब तो हैं
तमिल-तेलुगू, हिन्दी, गुरुमुखी बँगला गुजराती-मराठी ,
सुनता क्या नहीं रे !
सारा हन्दुस्तान सिमट आया यहाँ
एक ही कथा जिसके पात्र हम सब
धारे अपना वहीं वेष !'

दुर्गा लक्ष्मी और गणपति रचनेवाली देश की माटी
दीवाली, गणेश चतुर्थी, नवरात्र और हल्दी कुमकुम दे
हर बरस जता जाती
कि जीवन-मृत्यु दो छोर हैं समभाव से ग्रहण करो !
सृजन को उल्लास और विसर्जन को उत्सव बना लो-
यही है जीवन का मूल राग !

यहाँ की चकाचौंध जिसे भरमा ले
दौड़ती भागती बिखरन ही उसके हाथ आई
तृप्ति तो मुझे कहीं नज़र नहीं आई ।
इस नई दुनिया की
आँखों को चौंधियाती चमक, देखो, कितने दिन की!
पर सदियों की परखी
पुराने की अस्लियत अंततः सामने आ ही जाती है ।

यहाँ रह कर अपने उस छूटे हुये घर-द्वार की याद किसे नहीं आती?
अकेले में किसका आँख नहीं भर आती !
जीवन का जो अंश वहाँ छोड़ आये
उसकी कमी किसे नहीं सताती ।
कभी अकेले में
किसकी आँख नहीं भऱ आती !

और वही दृष्टि इन सब आँखों में देख
एक गहरा संतोष मन को आश्वस्ति से भर जाता है ।
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बुज़ुर्ग पेड़


कुछ रिश्ता है ज़रुर मेरा इन बुज़ुर्ग पेड़ों से !
देख कर ही हरिया जाती हैं आँखें,
उमग उठता है मन, वैसे ही जैसे
मायके की देहरी देख, कंठ तक उमड़ आता हो कुछ !
बाँहें फैलाये ये पुराने पेड़ पत्तियाँ हिलाते हैं हवा में,
इँगित करते हैं अँगुलियों से -
आओ न, कहाँ जा रही हो इस धूप में
थोड़ी देर कर लो विश्राम हमारी छाया में !

मेरी गति-विधियों से परिचित हैं ये,
मुझमें जो उठती हैं उन भावनाओं का समझते हैं ये !
नासापुट ग्रहण करते हैं हवाओं में घुली
गंध अपनत्व की !
एक नेह-लास बढ़ कर छा लेता है मुझे !
बहुत पुराना रिश्ता है मेरा !
इन बुज़ुर्ग पेड़ों से !
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मन का चोर !

मेरे मन में एक चोर है
जो मेरे सामने आने से घबराता है !
जब मैं उसे ढूँढने जाती हूँ
तो जाने किस कोने में
दुबक कर छिप बैठता है,
और मैं हँस पडती हूँ
स्वयं के सन्देह को झूठा मान कर !
पर भीतर ही भीतर मैं बहुत भय खाती हूँ उससे !
कहीं ऐसा न हो
कि अभी जहाँ वह मुझसे छिपता फिरता है ,
वैसे मैं ही अपने से छिपती फिरूँ !
जरा सी छूट पाते ही
वह मुझे ले डूबेगा
एकाग्रता से जोड-जोड कर जो संचित किया है
उससे वंचित कर डालेगा वह मुझे !
कोई माने या न माने
मेरे मन में एक चोर है
जो मेरे ही सामने आने से घबराता है !

गहन निराशा के अंधे क्षणों में जब जब मैं भटक गई
तीव्र विराग में हताश सी अकर्मण्य हो बैठ गई
उसने धीमे से सिर उठाया और अनायास मैं चौंक गई !
ओ मेरे पहरेदार पूरी-पूरी चौकसी रखना
प्रतिक्षण सजग करते रहना मुझे तुम !
कहीं ऐसा न हो कि पाँसा पलट जाये और वह मुझे ही लूट ले !
कोई जाने या न जाने मै जानती हूँ
मेरे मन में एक चोर है
जो मेरे ही सामने आने से घबराता है !
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प्रतिभा सक्सेना
फ़ोल्सम, केलिफ़ोर्निया, यू.एस.ए.