Wednesday, March 5, 2008


इल्ज़ाम जमाने के हम तो हँस के सहेंगे


इल्ज़ाम जमाने के हम तो हँस के सहेंगे

खामोश रहे हैं ये लब खामोश रहेंगे
तुमने शुरू किया तमाम तुम ही करोगे

हम दिल का मामला ना सरेआम करेंगे
हम बदमिज़ाज ही सही दिल के बुरे नहीं

दिल के बुरे हैं जो हमें बदनाम करेंगे
बदनाम करके हमको बड़ा काम करोगे

शायद जहां में ऊँचा अपना नाम करोगे
हर दाम पे 'सागर ' उन्हें तो नाम चाहिए

अच्छे से ना मिला तो बुरा काम करेंगे !



ग़ज़ल


एक ऐसी भी घड़ी आती है

जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है
अब यहाँ कैसे रोशन होती

ना कोई दीया, ना बाती है
हो लिखी जिनके मुकद्दर में खिजां

कोई रितु उन्हें ना भाती

ना कोई रूत ना भाये है मौसम

चांदनी रात दिल दुखाती है
एक अर्से से खुद में खोए हो

याद किसकी तुम्हें सताती है!




कच्चा-पक्का मकान था अपना

फिर भी कुछ तो निशान था अपना
अपना तुमको समझ लिया हमने

तुम भी लेते समझ हमें अपना
वो भी गैरों‍-सी बात करने लगे

जिनके होंठों पे नाम था अपना
है पीपल ना पेड़ बेरी का

ये शहर है, वो गांव था अपना
इससे आगे तो रास्ता ही नहीं

शायद ये ही मुकाम था अपना!


----- sanjay sen sagar