Tuesday, February 26, 2008


















खेत उदास हैं

चिड़िया उदास है -
जंगल के खालीपन पर
बच्चे उदास हैं -
भव्य अट्टालिकाओं के
खिड़की-दरवाज़ों में कील की तरह
ठुकी चिड़िया की उदासी पर

खेत उदास हैं -
भरपूर फसल के बाद भी
सिर पर तसला रखे हरिया
चढ़-उतर रहा है एक-एक सीढ़ी
ऊँची उठती दीवार पर

लड़की उदास है -
कब तक छिपाकर रखेगी जन्मतिथि

किराये के हाथ
लिख रहे हैं दीवारों पर
'उदास होना
भारतीयता के खिलाफ़ है !'
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एक असंवैधानिक कविता

हमें चाहिए अपने हिस्से की स्वतंत्रता
हमें चाहिए अपने हिस्से की समानता
उससे पेशतर विश्व में मनुष्यता में
कि हमें चाहिए अपने हिस्से का सुख
हमें चाहिए अपने हिस्से का जीवन
महाजीवन में
मालूम है हमें
कि भद्रजनों आदी नहीं हैं आप
ऐसे सत्र से
हाँ, कविता नहीं है
हमारे संघर्ष का घोषणा-

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ज़िदंगी में सपने कौन नहीं देखता...और फिर उन्‍हीं सपनों को सच करना एक ख्‍वाब से बढ़कर कुछ नहीं होता, तब तक जब तक कोई आपको प्रोत्‍साहित नहीं करता। जी हाँ, मैं दोस्‍तों की बात कर रही हूँ. मैंने एक सपना देखा है अपनी कविता की एक किताब...जो के मैं अपने मित्रों और निकटजनों की सहायता से और आप सभी साथियों के आशि॔वाद से नये साल की फरवरी महीने की चौदह तारिख तक पबलिश करने का प्रयत्‍न कर रही हूँ. आशा है मुझे आप सभी का सहयोग प्राप्‍त होगा...


ज़िंदगी में एक ख्‍वाब


मैंने भी बुना है


मन ही मन कुछ सिला


है पुरे होने की आरजू़ है


लेकिन साथ मेरा कोई दे॥!?!


इसी की आकाँशा है!


दोस्‍तों का साथ हो बडों का आशि॔वाद हो !


मेरे सपनों की बुनी एक किताब


कहो! है न मेरे सर पर आपका हाथ?




पहाडों पर बारिश
पहाड़ों पर बारिश
ऐसे होती है
जैसे किसी लाड़ली की
उसके बाबुल के घर से
बिदाई
दहाड़ती
पेड़ों को पछाड़ती
पहाड़ी हवा
और पीटती बारिश
जैसे नगाड़ों पर बूंदें
नृत्य कर रही हो


आज की रात
आज की रात
पतझर की आख़िरी रात है
देखो
किस तरह
उलझ गया है चाँद
गुलमोहर की
सूखी टहनियों के बीच
कल बसंत की
पहली सुबह होगी
कल चाँद
हरे कोपलों के बीच
नाचेगा








दर्द का सागर हूँ




इस अजनबी सी दुनिया में,


अकेला इक ख्वाब हूँ।सवालों से खफ़ा, चोट सा जवाब हूँ।


जो ना समझ सके, उनके लिये "कौन"।


जो समझ चुके, उनके लिये किताब हूँ।


दुनिया कि नज़रों में, जाने क्युं चुभा सा।


सबसे नशीला और बदनाम शराब हूँ।


सर उठा के देखो, वो देख रहा है तुमको।


जिसको न देखा उसने, वो चमकता आफ़ताब हूँ।


आँखों से देखोगे, तो खुश मुझे पाओगे।


दिल से पूछोगे, तो दर्द का सैलाब हूँ.







तोता सीख गया है हवेलियों की जुबान
हवेली ने
उस उड़ते हुए
तोते को कैद कर लिया है
या तोते ने
हवेली की उड़ान को
शहर में सन्नाटा छा जाता है
तोते की बोली से
तोता सीख गया है
हवेलियों की जुबान
जलायी गई औरत की चीख
उस पर बरसाये गए
कोड़ों की आवाज़
तोता यदा-कदा रटने लगता है
कब की मर चुकी
ज़िंदा जलती
उस औरत की चीख-पुकार
और लोग दौड़ पड़ते हैं
उस हवेली की ओर
कि फिर कहीं
कोई औरत.......


सज़ा
उस बंद शीसी में
शायद
हवा का दम
घुट रहा है
जी चाहता है
उसे आज़ाद कर दूँ
और उसकी जगह
उसमें भर दूँ
अपना दर्द
दे दूँ उसे
उम्र-कैद की
सज़ा




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तुझे भूलने की कोशिश में,

जब दिल ये ज़िद पे आ गया,

मैं आँख मूँद के बैठ गयी,

तू ख़याल पे फिर छा गया…
ये धड़कन कहीं रुक जाए ना,

मेरी नब्ज़ ठहर ना जाए कहीं,

तूने वक़्त किया मेरा लम्हा लम्हा,

मगर मौत को आसान बना गया…
मेरी हर दलील को किया अनसुनी,

मेरी फ़रियाद भी तो सुनी नहीं,

मैं हैरान हूँ, हाँ कुछ परेशान हूँ,

ऐसा फ़ैसला तू मुझे सुना गया…
मुझे चाँद की कभी तलब ना थी,

मुझे सूरज की भी फ़िक्र नहीं,

बस आँख खोलना ही चाहते थे हम,

मगर तू रोशनी ही बुझा गया….
बेशक भूलना तुझे चाहा बहुत,

हँस कर कभी, रो कर कभी,

दे कर ये आँसुओं की सौगात मुझे,

तू दामन अपना बचा गया….
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मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है
कागज की हवेली है बारिश का ज़माना है
क्या शर्ते मोहब्बत है क्या शर्ते फ़साना है
आवाज़ भी ज़ख़्मी है गीत भी गाना है
उस पार उतारने की उम्मीद बहुत कम है
कश्ती भी पुरानी है तूफ़ान को भी आना है
समझे या ना समझे वोह अंदाज़े मोहब्बत के,
एक शक्स को आँखों से हाल-ए-दिल सुनना है
मोहब्बत का बस इतना ही फ़साना है
एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है!!


एस.एम.एस.

अब नहीं लिखते वो खत
करने लगे हैं एस.एम.एस
तोड़ मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस.एम.एस
पिछले एस.एम.एस.का वजूद
एस.एम.एस के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएँ सिमटती गईं
खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की कद्र का अहसास भी।


सिमटता आदमी

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी. व्ही. चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागज़ी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहारदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज़ पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर।



लड़की

न जाने कितनी बार
टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती
याचना की निगाहों से
एक बार तो हाँ कहकर देखो
कोई कोर कसर नहीं रखूँगी
तुम्हारी ज़िंदगी संवारने में

पर सब बेकार
कोई उसके रंग को निहारता
तो कोई लम्बाई मापता
कोई उसे चलकर दिखाने को कहता
कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता
उसकी ऑंखों में
जहाँ प्यार है, अनुराग है
लज्जा है, विश्वास है।



ज़ख्म

ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे।
तुझे देखा, तुझे चाहा, तुझे अपनाया इस दिल ने,
चाँद सी इस सूरत में, पाया है जन्नत इस दिल ने,
किसी और का चेहरा अब ख्यालों में नहीं आता,
तसव्वुर में भी तेरा मासूम चेहरा यादें बन मुझे सताता।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे।
तोड़ कर इस शीशे-सा दिल को क्या तूने पाया,
मुहब्बत की राह में फूलों की जगह यों काँटों को बिछाया,
मंजिल बहुत दूर है ओ यारा, तुझे यह क्यों समझ नहीं आया,
तेरे बगैर ओ जानेमन, इक पल भी मुझे चैन नहीं आया।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
ज़ख्म का दर्द वही समझे जिसने ज़ख्म है खाया,
ज़ख्म देते वक्त तुझे, क्या इस आशिक पर तरस नहीं आया,
ज़ख्म की वजह से जिन्दगी बेदर्द लगने लगी है,
ज़ख्म सहते-सहते मुहब्बत की नूर शायद बुझने लगी है।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
सिनसिला ये ज़ख्मों का अब और सहा नहीं जाता,
तेरी गलियों से गुजरने को अब और जी नहीं करता,
तझे कभी न अब मिलूँगा, किसी और से न ऐसी बेवफाई कर,
खुदा का तुझे है वास्ता, इस ज़ख्मी को और ज़ख्मी न कर।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
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मैं मजदूर हूं
तड़प रहा हैं दिल, ठहर रही हैं सांसें।
नहीं रोक सकता पर कदमों को
मैं बड़ा मजबूर हूं क्योंकि
आज इस जन्म में
मैं इक मजदूर हूं।
लाख बनायें आशियां, लाख बनायें मंदिर
फिर भी इस पावन घरा पर
सोने को मजबूर हूं ।
क्योंकि मैं इक लाचार और गरीब सा
मजदूर हूं।
खूब उगाई फसलें हमने, खूब बहाई नहरें
फिर भी दर्द भूख का सहने
को मजबूर हूं।
क्योंकि आज इस जन्म में
मैं इक मजदूर हूं।
नहीं मुस्कुरा सकता हूं मैं, ना बहा
सकता हूं आंसू।
मैं हर पल इसी तरह
घुट घुटकर जीने को मजबूर हूं
क्योंकि आज की इस
अमीर दुनिया में, सिर्फ
मैं इक मजदूर हूं।
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