Friday, March 7, 2008


जब से देखा तुम्हें इक नशा सा हो गया है मुझे,
न जाने आजकल यह क्या हो गया है मुझे
ह्ल्की सी आहट सुन दिल कह्ता है कि तू आई है
एक अजीब मगर खूबसूरत सा धोखा हो गया है मुझे
न जाने ....
हर फूल में नजर आता ह बस तुम्हारा ही चेहरा
तितलिंयों और भंवरो से शिकवा हो गया है मुझे
न जाने ...
मेरी रातें गुजरती हैं आजकल करवटें बदलते हुए
चांद तारों से ही अब तो वास्ता हो गया है मुझे
न जाने ....
बहुत परेशां था गम ए जिन्दगी से अब तके
तेरे प्यार की आस में होसला हो गया है मुझेन जाने ......

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!गजल !


पोटली उम्मीदो की यू॑ ही उठाये रखिये !

इतनी रखी है थोडी ऒर बनाये रखिये !!

तेज हवाओ मे बुझ ना जाये कही

दिये को, ओट के सहारे रखिये !!

प्यार ने ही कोख से जना है दर्द को !

इसे भी सीने से लगाये रखिये !!

कद से भी बडे ना हो जाये कही !

अपनी हदो मे ही अपने साये रखिये !!

ना आत्मा, ना भाव, पर कविता कहेगे बहाये रखिये !!

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आप के लिए मेरी [संजय सेन सागर] की कुछ और अनमोल गजल

अहसास
सब कुछ तो खो गया है, क्या पास रह गया है

तुम साथ हो, यह झूठा अहसास रह गया है
फिर से कभी मिलेंगे दिल तोड़कर गये जो

उम्मीद तो नहीं पर विश्वास रह गया है
उनका भी दोष क्या हम थे न उनके काबिल
यह सोचकर हमारा सब रंज बह गया है
हाथों से फिसले लम्हे, फिर किसको मिल सके हैं

जाती हवा का झोंका,चुपके से कह गया है।!

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गजल...!

कभी ह॑से कभी मुस्करा हम दिये !

यू॑ ही खता उनकी, भुला हम दिये !

अपने पैरो पर भरोसा है बहुत !

इसलिये हर कन्धा, ठुकरा हम दिये !!

सच, दोस्तो का मोहताज नही है !

यही सोच, कदम, बढा हम दिये !!

सोच-सोच कर अब आ रही है ह॑सी !

क्यो अन्धो को आइना, दिखा हम दिये !!

दर्द ही मिला था विरासत मे दोस्तो !

कुछ उभर आये, कुछ दबा हम दिये !!

'सागर ’ ने दी थी आग, हवन की खातिर !

जलने लगे जब घर, तो बुझा हम दिये !!

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गजल !

हर शहर मे भीड हर गा॑व वीरान है !

बाप गा॑व मे, बेटा शहर मे परेशान है !!

वो शख्श जो फ़टेहाल, भूखा ऒर न॑गा है !

कोई ऒर नही अपने ही देश का किसान है !!

ही ख्वाहिशे जल कर भस्म हुई !

हर दिल मे कही ना कही, कोई शमशान है !!

कोई वजह है, जो चुप रहा करते है !

वरना वो गू॑गे नही उनके भी जुबान है !!

वो बच्चा रो रो कर सोया है अभी !

देखो उसके माथे पर चोट का निशान है !!

'सागर ’ अब चल फ़िर कर ऒर कही देखे !

बहुत बडी दुनिया बहुत बडा जहान है !!



।। ग़ज़ल ।।
दो ग़ज़लें

अनन्त कौर



लब पे न सजाना अब नग्मों की तरह मुझ को

बेहतर है भुला दो तुम ख्वाबों की तरह मुझ को

इल्जाम ज़माने के कुछ कम तो न थे मुझ पर
तूने भी सताया है औरों की तरह मुझ को

इस रंजे वफ़ा से मैं मर कर ही चलो छूटूं

ऐ दोस्त मिटा दे तू लफ्जों की तरह मुझ को


भेजे हैं गुलाब उस ने पर आप नहीं आया

तोहफे भी दिए उसने काँटों की तरह मुझ को

हर ग़म से 'अनंत' उसको रखती हूँ बचा कर मैं

है उस की मुहब्बत भी बच्चों की तरह मुझ को

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तिरे ख़्याल के साँचे में ढलने वाली नहीं

मैं ख़ुशबुओं की तरह अब बिखरने वाली नहीं

तू मुझको मोम समझता है पर ये ध्यान रहे

मैं एक शमा हूँ लेकिन पिघलने वाली नहीं

तिरे लिये मैं ज़माने से लड़ तो सकती हूँ

तिरी तलाश में घर से निकलने वाली नहीं

मैं अपने वास्ते भी ज़िंदा रहना चाहती हूँ

सती हूँ पर मैं तेरे साथ जलने वाली नहीं

हरेक ग़म को मैं हँस कर ग़ुज़ार देती हूँ अब

की ज़िंदगी की सज़ाओं से डरने वाली नहीं !!

Anant Kaur
5 Mapleshade Rd
Milltown, NJ 08850

।। जड़ें ।।


जड़ें चमक रही हैं
ढेले खुश
घास को पता है
चीटियों के प्रजनन का समय
क़रीब आ रहा है

दिन-भर की तपिश के बाद
ताज़ा पिसा हुआ गरम-गरम आटा
एक बूढ़े आदमी के कंधे पर बैठकर
लौट रहा है घर

मटमैलापन अब भी
जूझ रहा है
कि पृथ्वी के विनाश की ख़बरों के ख़िलाफ़
अपने होने की सारी ताक़त के साथ
सटा रहे पृथ्वी से ।

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।। मैं ज़िंदगी हूँ ।।


मैं लाश नहीं हूँ
जो तैरता रहूँ ऊपर ही ऊपर ही पानी पर
मैं ज़िंदगी हूँ
अतल गहराईयों में जाऊँगा
सीप से मोती निकाल लाऊँगा

मैं तिनका नहीं हूँ
जो उलझ जाऊँ किसी चोर की दाढ़ी में
मैं गरीब की बीड़ी का लुक हूँ
हवाओं में उडूँगा
शोषकों की बस्ती में
आग लगाऊँगा !


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।। शायद प्यार के कारण ।।

क्यों करता है मन
हरदम किसी की आशा
क्यों चाहता है दिल
हरदम किसी को पास
क्यों एकाएक
कोई चेहरा
अच्छा लगता है
क्यों एकाएक
कोई दिल
सच्चा लगने लगता है
क्यों उतर जाता है कोई
दिल की गहराइयों में
क्यों कूकती है कोयल
मन की अमराईयों में
क्यों लगता है कि किसी पर
अपना सारा मन उडेल दूँ
किसी पर
सारा जहान बिखेर दूँ !