Tuesday, February 26, 2008

मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है
कागज की हवेली है बारिश का ज़माना है
क्या शर्ते मोहब्बत है क्या शर्ते फ़साना है
आवाज़ भी ज़ख़्मी है गीत भी गाना है
उस पार उतारने की उम्मीद बहुत कम है
कश्ती भी पुरानी है तूफ़ान को भी आना है
समझे या ना समझे वोह अंदाज़े मोहब्बत के,
एक शक्स को आँखों से हाल-ए-दिल सुनना है
मोहब्बत का बस इतना ही फ़साना है
एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है!!


एस.एम.एस.

अब नहीं लिखते वो खत
करने लगे हैं एस.एम.एस
तोड़ मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस.एम.एस
पिछले एस.एम.एस.का वजूद
एस.एम.एस के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएँ सिमटती गईं
खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की कद्र का अहसास भी।


सिमटता आदमी

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी. व्ही. चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागज़ी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहारदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज़ पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर।



लड़की

न जाने कितनी बार
टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती
याचना की निगाहों से
एक बार तो हाँ कहकर देखो
कोई कोर कसर नहीं रखूँगी
तुम्हारी ज़िंदगी संवारने में

पर सब बेकार
कोई उसके रंग को निहारता
तो कोई लम्बाई मापता
कोई उसे चलकर दिखाने को कहता
कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता
उसकी ऑंखों में
जहाँ प्यार है, अनुराग है
लज्जा है, विश्वास है।



ज़ख्म

ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे।
तुझे देखा, तुझे चाहा, तुझे अपनाया इस दिल ने,
चाँद सी इस सूरत में, पाया है जन्नत इस दिल ने,
किसी और का चेहरा अब ख्यालों में नहीं आता,
तसव्वुर में भी तेरा मासूम चेहरा यादें बन मुझे सताता।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे।
तोड़ कर इस शीशे-सा दिल को क्या तूने पाया,
मुहब्बत की राह में फूलों की जगह यों काँटों को बिछाया,
मंजिल बहुत दूर है ओ यारा, तुझे यह क्यों समझ नहीं आया,
तेरे बगैर ओ जानेमन, इक पल भी मुझे चैन नहीं आया।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
ज़ख्म का दर्द वही समझे जिसने ज़ख्म है खाया,
ज़ख्म देते वक्त तुझे, क्या इस आशिक पर तरस नहीं आया,
ज़ख्म की वजह से जिन्दगी बेदर्द लगने लगी है,
ज़ख्म सहते-सहते मुहब्बत की नूर शायद बुझने लगी है।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
सिनसिला ये ज़ख्मों का अब और सहा नहीं जाता,
तेरी गलियों से गुजरने को अब और जी नहीं करता,
तझे कभी न अब मिलूँगा, किसी और से न ऐसी बेवफाई कर,
खुदा का तुझे है वास्ता, इस ज़ख्मी को और ज़ख्मी न कर।
ज़ख्म न दे मुझे और ज़ख्म न दे ,
ओ सनम बेवफा, मुझे और ज़ख्म न दे
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मैं मजदूर हूं
तड़प रहा हैं दिल, ठहर रही हैं सांसें।
नहीं रोक सकता पर कदमों को
मैं बड़ा मजबूर हूं क्योंकि
आज इस जन्म में
मैं इक मजदूर हूं।
लाख बनायें आशियां, लाख बनायें मंदिर
फिर भी इस पावन घरा पर
सोने को मजबूर हूं ।
क्योंकि मैं इक लाचार और गरीब सा
मजदूर हूं।
खूब उगाई फसलें हमने, खूब बहाई नहरें
फिर भी दर्द भूख का सहने
को मजबूर हूं।
क्योंकि आज इस जन्म में
मैं इक मजदूर हूं।
नहीं मुस्कुरा सकता हूं मैं, ना बहा
सकता हूं आंसू।
मैं हर पल इसी तरह
घुट घुटकर जीने को मजबूर हूं
क्योंकि आज की इस
अमीर दुनिया में, सिर्फ
मैं इक मजदूर हूं।
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1 comment:

yaadon ki kitaab!! said...

yaadon ki kitaab blog bakay yaadon main le jane wala hai bahut accha sanjay ji!