Friday, March 7, 2008


।। ग़ज़ल ।।
दो ग़ज़लें

अनन्त कौर



लब पे न सजाना अब नग्मों की तरह मुझ को

बेहतर है भुला दो तुम ख्वाबों की तरह मुझ को

इल्जाम ज़माने के कुछ कम तो न थे मुझ पर
तूने भी सताया है औरों की तरह मुझ को

इस रंजे वफ़ा से मैं मर कर ही चलो छूटूं

ऐ दोस्त मिटा दे तू लफ्जों की तरह मुझ को


भेजे हैं गुलाब उस ने पर आप नहीं आया

तोहफे भी दिए उसने काँटों की तरह मुझ को

हर ग़म से 'अनंत' उसको रखती हूँ बचा कर मैं

है उस की मुहब्बत भी बच्चों की तरह मुझ को

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तिरे ख़्याल के साँचे में ढलने वाली नहीं

मैं ख़ुशबुओं की तरह अब बिखरने वाली नहीं

तू मुझको मोम समझता है पर ये ध्यान रहे

मैं एक शमा हूँ लेकिन पिघलने वाली नहीं

तिरे लिये मैं ज़माने से लड़ तो सकती हूँ

तिरी तलाश में घर से निकलने वाली नहीं

मैं अपने वास्ते भी ज़िंदा रहना चाहती हूँ

सती हूँ पर मैं तेरे साथ जलने वाली नहीं

हरेक ग़म को मैं हँस कर ग़ुज़ार देती हूँ अब

की ज़िंदगी की सज़ाओं से डरने वाली नहीं !!

Anant Kaur
5 Mapleshade Rd
Milltown, NJ 08850

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