Monday, March 3, 2008



।। ग़ज़ल ।।

ख़यालों का आइना


सूर्ख़ उन्वां लिए मिला काग़ज़
ख़ून से तर-ब-तर हुआ काग़ज़

दूर परदेस में था वो लेकिन
बन गया उसका राबता काग़ज़

जब न कह पाए कुछ लबे ख़ामोश
उसकी नज़रों ने फिर लिखा काग़ज़

मेरे आँगन में आके पुरवाई
ले उड़ी मेरे गीत का काग़ज़

अक्स हर सोच का पड़ा उस पर
है ख़यालों का आइना काग़ज़

बर्फ के टीले आग की दरिया
नाव काग़ज़ की नाख़ुदा काग़ज़

ज़िंदगी भर रहा कोई प्यासा
'शेरी' कोरा ही रह गया काग़ज़ !!



ज़िंदगी का निचोड़


यूँ तो हर शाम पे इक मोड़ मिला
दिल किसी से मगर न जोड़ मिला

ऐ ग़मे-यार ! हम तेरी ख़ातिर
छोड़ आये उसे, जो छोड़ मिला

हार थक कर ख़ुदा को मान लिया
मौत का जब न कोई तोड़ मिला

माँगने का भी है एक मेयार
लाख चाहा, मगर करोड़ मिला

दुश्मनों की कमी नहीं है 'ख़याल'
ज़िंदगी का यही निचोड़ मिला !



अपना घर आया


दूर से दरिया समन्‍दर सा लगा
जब करीब आया तो क़तरा सा लगा

ढूँढता फिरता था जो औरों के दाग़,
उसका ख़ुद किरदार मैला सा लगा

इस कदर मसरूफ़ राहों में रहे
अपना घर आया तो मंज़िल सा लगा

खुश्‍बुओं की क्‍या किसी से दुश्‍मनी
छू गईं जिसको वो महका सा लगा

कितनी पाक़ीज़ा ज़ुबां उसको मिली
झूठ भी बोला तो सच्‍चा सा लगा

वो हमारे शहर का सुकरात था
विष का प्‍याला जिसको अमृत सा लगा

तुम न थे तो पत्‍थरों का ढेर था
आ गए तुम तो ये घर, घर सा लगा

किसको हाले दिल सुनाते हम 'नवीन',
जो मिला, ग़म उसका अपना सा लगा !



रंग-बिरंगे लोग


कितने रंग-बिरंगे लोग
मोटे-ताज़े-चंगे लोग

झूठ-घृणा का ज़हर वमन कर
करवाते नित दंगे लोग

क्या थे क्या आज हुए क्या
बेशऊर बेढंगे लोग

बन वज़ीर कुर्सी पर बैठे
लुच्चे और लफ़ंगे लोग

किसको फुर्सत सोचे उनकी
जो हैं भूखे-नंगे लोग

जाने राम कौन-सी मंशा
खोदें रोज़ सुरंगे लोग

No comments: